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सुनऽ हो, भइया / कुमार वीरेन्द्र

फगुनहटी बयार बहे ललकार

गेहूँ सुखाय हो भइया
सुखाय हो तेलहन के खेतवा, मसुरी-खेसारी के; खेतवा तो खेतवा
गड़हिया हो अरहर की सुखाय, कहे मटर, तनि
सुनऽ, अरजिया हो, हम नदी
तीरे के अन्न

अन्न हमहुँ, माटी में माटी खाँटी केवाल के

सुखात नाहीं पहिले
तबहुँ जानत हैं, बूँट नाहीं, जे बधार का राजा, पर हमरे बिन बधरिया
झँखाड़, लागे ओर-छोर पियर-पियर, हम कट्ठा
दु कट्ठा सही, लउकें तनि-भर ही
हरियर-हरियर

तबहिं तो हमरे फिकिर सुतत-जागत नाहीं

खेतिहर कि हम जे नदी
के आर-पार बोआत पछात, उखड़ात पछात हरियर; कहे मटर सुनऽ
गुनऽ हो, हम नाहीं भले बधार के राजा, पर ई जो
बीतत फागुन अपने पाहुन आए
हमरी डाँठ झोर

खिला तो दो होरहा, पाहुन रे बाबू, उसकी

नगरिया कहाँ ई सुवाद
कहे मटर, सुनऽ हो, झोरत होरहा, खात-खियावत, छेड़ऽ तनि
लहरा, 'ई पाहुन सरवा बड़का बकलोल, जाने
ना झोरे के हाल, बाक़ी मारे
फाँका पे फाँका

खाए गुबुर-गुबुर हो भइया, खाए

गुबुर-गुबुर...!'