अब जब
लुढकते हैं दिन
रीती सुराही की तरह
जब बाँध देती हूँ
शाम की कतरने
पेड़ की टहनियों से
किसी टोटके की तरह
इंकार कर देता है तब
मेरा अपना ही साया
मुझे पहचानने से
तब रात की स्लेट पर
उभर आती अपनी तस्वीर से
चीखते हुए कहती हूँ मैं...
‘दया के पात्र हैं सिर्फ़ वे
जिनके पास बेशुमार वजहें थीं
निर्मम होने के लिए!’
सुना, सुना तुमने?