Last modified on 3 फ़रवरी 2009, at 21:34

सुनो / केशव

सुनो
तुम शहर में हो
तो लगता है
बादलों की छत तले
वृक्ष-वृक्ष से लिपटता
हरी ढलानों पर
      गडरिये की तरह
बाँसुरी होंठों पर रखे
गुज़रता है
पल
      पल
झरने की तन्मयता में डूबा

सुनो
तुम शहर में हो
तो लगता है
हर छत के नीचे
मौजूद है एक घर
घर की खिड़की हो तुम
जिसमें से
      परिन्दों की तरह
आ-जा सकता हूँ मैं

सुनो
तुम शहर में हो तो
बारिश की
    टप
        टप
             टप
धूप की
     धप
         धप
               धप
हवा की
         
          छप
               छप
                   छप
सब किलकारियाँ हैं
एक नटखट बच्चे की

सुनो
तुम शहर में हो तो
हर चुप्पी के गर्भ से
पैदा होती है
एक पुकार
फैलती
       गली-गली
       घाटी-घाटी
मँडराती हर खोखल में
यहाँ तक कि
लिपट जाती शहर के गिर्द
    मंत्रपूत मेखला की तरह


सुनो
तुम शहर में हो तो-----