ताले में बंदकर दिनकर को
सुनो कोहरा
खड़ा हँसे
भोर बहुरिया दांत बजाती
अंगड़ाई ले उठती है
सुबहा कि आँखों में देखो
रैनभरी इक
बस्ती है
देह किरण की
ओढ़ रजाई
सोच रही है बुरे फँसे
सुनो कोहरा खड़ा हँसे
देख देहरी
आँख उठाये
बाट जोहती दिनकर की
डरी हुई सदियों से खिड़की
झाँक रही है
इस पर भी
चुप्पी में
अब दीवारों की
दिन सारे हैं धँसे-धँसे
सुनो कोहरा खड़ा हँसे।