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सुनो मछेरे / कुमार रवींद्र

सुनो मछेरे
जाल समेटो
उतर आई है साँझ झील पर
 
गहरे जल में
पैठ गई है सोनमछरिया
घिर आई है साँस-साँस में
थकी कुबिरिया
 
ऊपर आसमान में
देखो
लौट रहे हैं पंछी भी घर
 
सुर टूटे हैं
मौन हुई बंसरी घाट पर
पहला तारा उगा अचानक
उधर लाट पर
 
वही लिखेगा
सुनो
अँधेरे में सपनों के आखर-आखर
 
पत्ते-पत्ते पर
अँधियारा पसर रहा है
कौन कहे
कितना पानी किस घाट बहा है
 
लहरें बिखरीं
पता नहीं
किसने फेंका है चिढ़कर पत्थर