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सुनो सखे / योगक्षेम / बृजनाथ श्रीवास्तव

सुनो सखे !
हम जो भी है
अजर-अमर है
बस देही मरती है

चक्रव्यूह में
फँसी-फँसी यह
पास हमारे आई
इसके अदर
रमा हुआ मैं
लेता हूँ अँगडाई

सुनो सखे !
यह देह हमारी अनुचर है
पर ये ही जरती है

रखती मेल –
मिलाप यहीं तक
कब मेरे साथ गई
हुई पुरानी
बदल गई कल
फिर दिखती आज नई

सुनो सखे !
यह देह लगाती चक्कर है
जो अनुदिन डरती है

इसके मरने
पर मरा नहीं
और न अब तक रोया
साथ इसी के
जागा दिन भर
और रात को सोया

सुनो सखे !
यह देह कथा बस पल भर है
जो पल में झरती है