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सुनो हरि ! / भारत यायावर

हरि भटनागर मेरे कथाकार मित्र हैं । मैं मूलतः कवि हूँ । कविता ही जीता हूँ । आज कविता के मर्म को कथा में समाहित करने की प्रक्रिया को लेकर एक कविता स्वतः अवतरित हो गई ।

सुनो हरि ! सुनो !
क्या मेरी पीर तुम तक पहुँचती है ?
बिना पैरों चलता हिरामन तुम तक पहुँचता है ?
पहुँचती है मेरी कविता की आवाज़
पंखहीन कविता की गति क्या होगी !
क्या होगा उस प्रेम का आग़ाज
जहाँ उफ़ लगी रहती है !

एक धुन्ध में धुन समाई रहती है
ठिठुरते वसन्त में जैसे गरमाई की आस
धीरे-धीरे बदलता है मौसम
करवट बदलती है पृथ्वी
एक उदासी से मन के फूल भरे रहते हैं

एक छटपटाहट से भरी हुई कविता
अन्तर्मन में एक पुकार लिए रहती है
 कौन जाएगा वहाँ
किसको लगी है तड़प !

सुनो हरि !
और कथा को कहो
फिर कथा में बहो
फिर कथा के अन्तस में रहो
मेरी आवाज़ सुनो
तो अपनी कथा में बसा लो इसको
कथा को नयन दो कि वह ख़ुद देखे
मेरी पीर को एक नई पहचान मिले
पंखहीन को पंख मिले
हिरामन को मन का मीत मिले
धरती को उसका संगीत मिले
वसन्त को रूप मिले
और आकर्षण का लिबास
कि घूमती - भागती हवा भी मगन हो जाए
मन में उल्लास भरे और वो गगन हो जाए !