वहाँ अब शब्द नहीं हैं
ध्वनियाँ हैं फ़कत...और भागती हुई तस्वीरें
कुछ धुँधले अर्थों के गिर्द मँडराती हुई
खिंचे चेहरे और ऐंठी जीभ से निकला
एक सवाल मुझ तक पहुँचता है
आप क्या वीर है ?
वीर ? कौन ? अजी मैं कहाँ ?
एक मुस्कान धूमिल ज़र्द चेहरे पर दिखती है
निराशा से भरी हुई, बिना किसी तुर्शी के
निहत्था कर देने वाली मुस्कान
आखिर पूछना क्या चाहते हैं ?
लुंज पड़े शरीर के कई इशारों बाद
आप का आज समझ में आता है
और वीर का वार......आज क्या वार है ?
सामने एक टी०वी० है
जो जब तक बिजली रहती है, चलता रहता है
फ़िल्में....फ़िल्में.....सिर्फ़ फ़िल्में
सेक्स और हिंसा के अंतहीन शोरबे में
ढाई-ढाई घंटों के गोते लगातार
क्या दिन है आज....यही पूछना चाहते हैं ?
राहत से वह आँख मूँद लेते हैं
जवाब ज़रूरी नहीं
सवाल का समझा जाना काफ़ी है
आदतन मैं उनका जवाब देता हूँ
17 अगस्त 2009, एतवार
दिन के साढ़े तीन बज रहे हैं
धुआँई आँखों और बेजान उँगलियों से
वह इस ख़बर को टटोलते हैं
क्या यह समुद्र में भटके
या कई साल बर्फ़फ में दबे रहे इंसान को
रैखिक समय में वापस खींचने जैसा है ?
सुन्न जेहन से चेतना में
शाश्वत धुंध से अर्थों में
ध्वनियों से शब्दों के बीच लौटना
कैसा होता है ब्रजेश्वर मदान ?
इस सफ़र के क़िस्से क्या कभी सुनाओगे ?