सुन कर
बोल कर
पढ़ कर
नहीं जाना जा सकता सच
आत्मसात् करना पड़ता है उसे
फूटता है वह
अंगार की तरह मन में
दहकता रहता है लगातार
कभी दृश्य कभी अदृश्य
खिलता है कभी फूल - सा
चुभता है कभी षूल - सा
उधार का कभी नहीं होता
होता है सिर्फ अपना
उमड़ता
उमगंता हुआ
मगर
केवल हुलसाता हुआ नहीं
कई बार
झुलसाता हुआ भी