Last modified on 6 जुलाई 2010, at 13:46

सुप्रभात / वीरेन डंगवाल


पीठ ओट दे पूड़ी खालो
गाड़ी के डब्‍बे में
प्‍लास्टिक की पिद्दी प्‍याली में
एक घूंट मैली-सी चाय

देहाती स्‍टेशन की
जंग लगे लोहे वाले चपटे तीरों की सरहद के पार
सुनहरी परछांही को फैलते देखो
काई भरे गंदे डबरे पर
जो जगमग अलौकिक सी दीप्ति से

चूम रहा है ईश्‍वर
खुद अपने हाथों झुलसाये पृथ्‍वी के केश
और दग्‍ध होंठ
जिनमें इच्‍छाएं स्‍मृतियों की तरह हरी हैं

और वे कड़खड़ाती एडियां कतारबद्ध
और वे क्‍लाश्निकोव वगैरह चमचम
परेड मैदान की भूरी धूल में सुबह-सुबह

और वे नंगी दुर्बल सांवली पसलियां
भयग्रस्‍त थर-थर वक्ष के तले
वह भी चमकतीं हंसुओं की तरह

देखो बेआवाज सिसकियों से हिलती दिल की बूढ़ी पीठ
दिल की आंखों से उबलते आंसू
देखो फूलता-पचकता
दिल का घबराया जर्द चेहरा

सुप्रभात, अलबेले जीवन
चलो निकल आगे की ओर
दिल को लिये मीर की ठौर !
00