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सुबह / मधुप मोहता


सुबह तुम्हारी ख़ुशबुओं का
मेला सजाती है,
तुम्हारी आंखों की नमी,
रिस-रिसकर मेरी
कलम में उतर आती है,
मुझे लगातार देती रहती है,
परिभाषा।

तुम्हारी कांपती, ख़ामोश उंगलियां
बिखेरती रहती हैं मेरे बालों को,
किसी गुज़रे हुए दिन की यादें
पिघल जाती हैं।

मेरी आंखें बंद करने भर से,
तमाम दुनिया का वजूद
मिट जाता है जैसे,
यह सुबह,
तुम्हारा मेला नहीं,
तो क्या है ?

बरसती रहो,
अपनी संवेदनाओं में,
मुझे ढूंढ़ो
भूल जाओ, दूर से आती हुई आवाज़ो को
मेरे सिरहाने बैठो,
और चुपचाप,
ख़यालो में सिमट जाओ।