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सुबह और सपने / कुलदीप कुमार

मेरी तरह

मेरी सुबह भी काफ़ी अजीब है
कभी भी हो जाती है
रात के दो बजे
तो दिन के दो बजे भी
जब आँख खुले तभी सवेरा
यह कहावत शायद मेरे लिए ही बनी थी

सुबह तो सोने के बाद होती है
लेकिन सोना होता ही कहाँ है?

नींद की बस लपटें-सी उठती हैं
और सब कुछ राख कर चुकने के बाद
मेरी पलकों पर ठहर जाती हैं
तभी मुझे नींद आ जाती है
थोड़ी-सी देर
लेकिन सपने नहीं आते

उन्हें मैं जागते हुए देखता हूँ

देखता हूँ कि एक आदमी
लगातार झूठ बोलता जा रहा है
लोगों की जेब से नोट निकाल कर
रद्दी काग़ज़ भर रहा है
और लोग ख़ुशी से नाच रहे हैं
भेड़ियों की भीड़ चौराहों पर जमा है
और बकरियाँ उन्हें हार पहना रही हैं

भूखों के आगे गाय का गोबर और गौमूत्र परोसा जा रहा है
और वे कृतज्ञ होकर थालियों को ढोलक की तरह बजा रहे हैं

अच्छा है ऐसे सपने मुझे सोते में नहीं आते
वरना जो रही-सही नींद आती है
वह भी चली जाती

जाग कर जो चेहरा देखता था हमेशा
वह तो चला ही गया है