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सुबह से शाम तक / बालस्वरूप राही

धरा तो क्या गगन तक को हंसी से हम गुंजा देते
सुबह से शाम तक कोई खुशी की बात तो होती।

हमें मंज़ूर था तपना, हमें स्वीकार था मरुथल
अगर आकाश के उस छोर पर भी दीखता बादल
शिकायत यह नहीं हमको, हमारा कंठ सूखा है
हमें दुख है कि हमसे विश्व का व्यवहार रूखा है।

जिसे हमने बहुत नज़दीक अपनी रूह के पाया
उसे अक्सर हमारा हाथ छूना तक नहीं भाया
किसी का प्यार तो क्या, हम कृपा भी पा नहीं सकते
किसी को क्योंकि कोई फायदा पहुंचा नहीं सकते।

भले ही आशियाने पर हमारे बिजलियाँ गिरतीं
यही हसरत रही हमको, कभी बरसात तो होती।

हमें विश्वास था, आखिर सचाई जीत जाती है
अगर धीरज धरो मुश्किल घड़ी भी बीत जाती है
मगर कुछ दूसरा ही हाल हमने हर जगह देखा
सचाई बेच दी जिसने, उसी को मिल गया ठेका।

निराशा को न अपनी बांह में यदि प्यार से भरते
लगा देते शहर में आग या घर को धुआं करते।
पराजय मान ली , हर व्यर्थ आशा छोड़ दी हम ने
बिछौना कर लिया दुख को, हताशा ओढ़ ली हम ने

न दीपक है न तारे हैं न वादे हैं न यादें हैं
हमारी ज़िन्दगी है रात लेकिन रात तो होती।

कहीं तो कुछ हुआ होता कि जिससे टूटती जड़ता
हमें हर पूर्व-निश्चित कार्यक्रम जीना नहीं पड़ता
कहीं तो कुछ घटित होता, जिसे हम याद रख सकते
कभी तो हम नये की ताज़गी का स्वाद चख सकते।

यहीं करने पड़ेंगे रोज़ हस्ताक्षर रजिस्टर पर
हमारे भाग्य में शायद यही पद हैं यही दफ़्तर
यही आरोप है हम पर कि हम बस काम करते हैं
तरक़्क़ी हाथ में जिनके न उन्हें सलाम करते हैं।

भले ही राग की परछाइयां तक छू नहीं पाते
किसी ली की हमारे होंट पर शुरुआत तो होती
सुब्ह से शाम तक कोई खुशी की बात तो होती।