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सुमुखि मुझको शक्ति दे / अज्ञेय

सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं!

घोर जन की गूँज-सा आयास जग पर छा रहा है,
दामिनी की तड़प-सा उल्लास लुटता जा रहा है-
ऊपरी इन हलचलों की आड़ में आकाश अविचल।
दे मुझे सामथ्र्य ध्रुव-सा चिर-अचंचल रह सकूँ मैं!
सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं!

शोर से पागल जगत् में घुमड़ती हैं वेदनाएँ-
घोंटती है नियति मुट्ठी वे न बाहर फूट आएँ-
बन्धनों के विश्व में, हे बन्ध-मुक्ते! हे विशाले!
दे मुझे उन्माद इतना मुग्ध सरि-सा बह सकूँ मैं!
सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं!

रो रहे हैं लोग, 'जग की चोट को हम सह न पाते-
मौत चारों ओर है,' सब ओर स्वर हैं बिलबिलाते।
तू, जिसे भव की कठिनतम चोट ने कोमल बनाया-
शक्ति दे, उद्भ धार तुझ को घात सारे सह सकूँ मैं!
सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं!

रात सारी रात रो कर ओस-कण दो छोड़ जाती,
साँझ तम में जीर्ण अपना प्राण-धागा तोड़ जाती,
मौन, असफल मौन ही फल-सा हुआ है प्राप्त जग को-
मुखर-रूपिणि! दान दे यह प्यार अपना कह सकूँ मैं!
सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं!

गहन जग-जंजाल में भी राह अपने हित निकालूँ,
उलझ काँटों में पुरानी जीर्ण केंचुल फाड़ डालूँ-
कूल-हीन असीम के उस पार तक फैला भुजाएँ-
अडिग प्रत्यय से उमड़ कर हाथ तेरा गह सकूँ मैं!
सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं!

दिल्ली, 23 अगस्त, 1936