Last modified on 25 दिसम्बर 2017, at 18:13

सुलगते ही रहो दिल की अगन में / कविता सिंह

सुलगते ही रहो दिल की अगन में
मज़ा कुछ भी नहीं दारो रसन में

फ़िज़ा में ये ज़हर कैसा घुला है
दिलों में नफ़रतें हैं अब वतन में

अभी धुंधला पड़ा है आइना भी
नहीं है अक्स कोई भी ज़हन में

वो करने आये तब इज़हारे उल्फ़त
बदन लिपटा हुआ था जब कफ़न में

कफ़स में क़ैद जैसे हो परिंदा
है क़ैदी रूह वैसे ही बदन में

शबे तन्हाईयाँ हैं रतजगे हैं
तड़पती है 'वफ़ा' दिल के सहन में