पहली बार सूख गयी है सई नदी
दूर तक उड़ता है रेत का बवन्डर
फागुन की गर्म तेज बयार से
सरपट दौड़ता है बच्चो का झुंड
नदी के आर-पार बेरोक-टोक
सीना ताने टीले से नजर बचाकर
गलबहियाँ करने को सिसकती हैं
दोनों तरफ बिछड़ती धार
ऐसे में बेबस मन सोचता है कि
क्यों नहीं मचती है उथल-पुथल
धरती के सीने में अब
क्यू नहीं टकराती हैं परते, परतों से
झीलों ने साध रखी है क्योंचुप्पी?
उनके आंगन से क्यों नहीं फूटती है धार
फिर से गोमती, सई, वरुणा की!