सोच की धरा पर कहीं,
नमीं नहीं,
पानी नहीं,
कटी फटी जमीं है बस,
प्यास ही प्यास है,
नींदों के जंगलों में,
कहीं कुछ भी हरा नहीं,
पेड़ कुबड़ा गए हैं,
नंगी शाखें आकाश को तकती हैं,
कोरा आकाश,
सर झुकाए खड़ा रहता है,
मौन,
चुप,
कभी एक दरिया हुआ करता था,
जिसके मुहाने पर,
ख्वाबों का एक शहर आबाद था,
आज एक उजाड़ सी बस्ती है –
मुर्दा खण्डहरों की
मेरे भीतर –
एक सूखा आकाश है...