वे समझते हैं
तुम्हारा कोई अतीत नहीं है
-ऐसे ही सूखे रहे हो तुम सदा-
क्योंकि जिन का कोई भी अतीत रहा होता है
वे सदा बिसूरते रहते हैं
हाँ, एक दुःख वह भी होता है
जो पत्थर कर देता है
लेकिन अन्दर उबलता रहता है चश्मा
और एक दिन फोड़ कर उसे
निकल आता है।
लेकिन तुम तो रेत हो
यानी जो भीतर ही भीतर हो सकता
वह भी गया होगा सूख।
नहीं, सूखा नहीं है वह
नहीं तो यों सँजोये नहीं रहते
अपनी जर्जर छाती में वे सारे जीवश्म
जो कभी दुनिया थे तुम्हारी।
जब तक अपनी दुनिया की यादें
दबी हैं मन में
-जीवाश्म-सी ही सही-
तब तक दुःख है इसलिए सपने भी !
वह जितना गहरा है
चश्मा उसी शिद्दत से
कभी फूटेगा।
(1982)