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सूखी झील / प्रेमशंकर शुक्ल

सूखी झील को देखकर
आसमान के चेहरे पर
गहरी बेचैनी है

सतह का चेहरा भी
रूखा है
बिवाई की तरह फटा हुआ

बहुत सूख गई है झील
तल की दरारों का अन्धेरा
रात के पाँव में गड़ता है

जिस झील का पानी
पालता था पूरा शहर
वही झील आज
अपनी प्‍यास में छटपटाती है

उछलती लहरें बीत गईं
और बचा हुआ पानी
गूँगा हो गया है !