सूख गए मधुवन जीवन के
आशाओं की संध्या उलझी शून्य क्षितिज के सूनेपन से।
नभ के चल घनश्याम घनेरे
चन्दा-मुख चूमते निगोड़े
झंझा के आते सब सपने, बिखर गए अपलक नयनन के।
विद्युत-बान गँसीले खिंचते
खिंचते ही मन-मृग जा बिंधते
कहाँ छिपे हृद-रेख गहन दे, वे संधान चपल चितवन के।
अंचल पावस-ऋतु बरसाते
गिरि-घाटी रस-पीन सुहाते
ओझल हो गए चटकीले-से, उगते ही सुरधनु उपवन के।
धरती धुलती जावक-जैसी
झड़ी रिमझिमी नूपुर-ध्वनि-सी
उचट गए बरखा के मेले, सच होते सपने सावन के।