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सूनापन / महादेवी वर्मा

मिल जाता काले अंजन में
सन्ध्या की आँखों का राग,
जब तारे फैला फैलाकर
सूने में गिनता आकाश;

उसकी खोई सी चाहों में
घुट कर मूक हुई आहों में!

झूम झूम कर मतवाली सी
पिये वेदनाओं का प्याला,
प्राणों में रूँधी निश्वासें
आतीं ले मेघों की माला;

उसके रह रह कर रोने में
मिल कर विद्युत के खोने में!

धीरे से सूने आँगन में
फैला जब जातीं हैं रातें,
भर भरकर ठंढी साँसों में
मोती से आँसू की पातें;

उनकी सिहराई कम्पन में
किरणों के प्यासे चुम्बन में!

जाने किस बीते जीवन का
संदेशा दे मंद समीरण,
छू देता अपने पंखों से
मुर्झाये फूलों के लोचन;

उनके फीके मुस्काने में
फिर अलसाकर गिर जाने में!

आँखों की नीरव भिक्षा में
आँसू के मिटते दाग़ों में,
ओठों की हँसती पीड़ा में
आहों के बिखरे त्यागों में;

कन कन में बिखरा है निर्मम!
मेरे मानस का सूनापन!