हुए हैं कितने अन्तर्धान
छिन्न होकर भावों के हार,
घिरे घन से कितने उच्छवास
उड़े हैं नभ में होकर क्षार;
शून्य को छूकर आये लौट
मूक होकर मेरे निश्वास,
बिखरती है पीड़ा के साथ
चूर होकर मेरी अभिलाष!
छा रही है बनकर उन्माद
कभी जो थी अस्फुट झंकार,
काँपता सा आँसू का बिन्दु
बना जाता है पारावार।
खोज जिसकी वह है अज्ञात
शून्य वह है भेजा जिस देश,
लिए जाओ अनन्त के पार
प्राण वाहक सूना संदेश!