सूनी-सी साँझ एक
दबे-पाँव मेरे कमरे में आई थी ।
मुझ को भी वहाँ देख
थोड़ा सकुचायी थी ।
तभी मेरे मन में यह बात आई थी
कि ठीक है, यह अच्छी है,
उदास है, पर सच्ची है :
इसी की साँवली छाँह में कुछ देर रहूँगा
इसी की साँस की लहर पर बहूँगा
चुपचाप इसी के नीरव तलुवों की
लाल छाप देखता
कुछ नहीं कहूँगा ।
पर उस सलोनी के पीछे-पीछे
घुस आईं बिजली की बत्तियाँ
बेहया धड़-धड़ गाड़ियों की :
मानुषों की खड़ी-खड़ी बोलियाँ ।
वह रुकी तो नहीं, आई तो आ गई;
पर साथ-साथ मुरझा गई ।
उस की पहले ही मद्धिम अरुणाली पर
घुटन की एक स्याही-सी छा गई ।
-सोचा था कुछ नहीं कहूँगा :
कुछ नहीं कहा :
पर मेरे उस भाव का, संकल्प का
बस, इतना ही रहा ।
यह नहीं वह न कहना था
जो कि उस की उदास पर सच्ची लुनाई में बहना था
जो अपने ही अपने न्रहने को
तदगत हो सहना था ।
यह तो बस रुँध कर चुप रहना था ।
यों न जाने कब कहाँ
वह साँझ
ओझल हो गई ।
और मेरे लिए यह
सूने न रहने की
रीते न होने की
बाँझ अनुकम्पा समाज की
कितनी बोझल हो गई !