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लू झाँ-झाँ करती है
निर्जन दुपहरिया में.
सूनी चौकी की ओर देखता हूँ
नाम को भी सांत्वना नहीं वहाँ.
उसके संपूर्ण ह्रदय में
हताश की भाषा हाहाकार करती मानो.
करुना-भरी शून्यता की वाणी उठती है
मरम उसका समझ नहीं आता .
मालिक को खो देने वाला कुत्ता जैसे करुण आँखों से ताकता है,
अबुझ मन की व्यथा हाय-हाय करती है,
क्या जो हुआ,कैसे हुआ,कुछ नहीं समझता
रात-दिन विफल नयनों से चारों ओर खोजता है.
चौकी की भाषा जैसे और भी करुण-कातर है,
सूनेपन की मूक व्यथा प्रियविहीन घर को छाप लेती है.
२६ मार्च १९४१