Last modified on 24 नवम्बर 2008, at 13:21

सूरज की कविताएँ (भूख) / सोमदत्त

उस रोज़
उसके चेहरे पे ऎसा लगा जैसे
पहली झुर्री दिखी
उस सूरज के चेहरे पर : जिसे मैं नक्षत्र माने बैठा था
मंगल, शुक्र, बुध और जाने किस-किस के जैसा
उस रोज़
मेरा भ्रम टूटा
जब उसमें मुझे अपनी दाई की पहली झुर्री दिखी,
काले कोस बीस बरस
लगातार दोनों जून
निकलने से पहले
लौटने के बाद
गुंगुवाते चूल्हे पर झुकी,फूँका मारती, रोटी पलटाती
भूख के सौंधेपन तक सबको पहुँचाती
जिसकी रीढ़
अस्त होने तक नहीं झुकी