सुलगते संदर्भ जुड़ते गए साँसों से
आग दीखी तो चिनारों में पलाशों में
पेड़ की परछाइयाँ
होती रहीं छोटी-बड़ी,
पढ़ न पाए लोग लेकिन
धूप की बारह खड़ी,
रोशनी गायब, अँधेरा है, तो मुँह खोले
शब्द की लौ चमक भर जाती हताशों में।
फूल में थी आग
या फिर आग जैसे फूल,
अब न मौसम रह गया
इस ख़्याल के अनुकूल,
जंगलों में भी बसी हैं बस्तियाँ
किसी सूरज की प्रतीक्षा है कुहासों में।
साँझ की स्याही
सुबह कलमें डुबोई
दिन के सफहों पर
बहुत दिन ज़िन्दगी रोई
हाथ माथे की लकीरों से घिरी जो सिसकियाँ
कब सुनी जातीं समय के अट्ठहासों में!