खिसकने लगा अब किनारा
छूटने लगा है जहाज ।
अभी-अभी जो जैसे थे
धीरे से अनहुए हुए ।
बादल की नदी लांघकर
सूरज के साथ हम बहे ।
हिलता हाथों का सहारा
महंगा मूंगे का ताज ।
मुस्कानों का एक अदद मौसम
सामने पलासों-सा दहका ।
बीच दुपहरिया में जैसे
धूपों से सिंकता मन महका ।
पिछली यादों में दुबारा
उधड़े कमीजों के काज ।
यह कैसा विदा का सन्नाटा
कोसों तक सूना मन कांपा ।
उंगलियों फंसा छोटा सा कागज
हवा ने उदासी को छापा ।
कितना अमीर जी हमारा
सपनों पर है जिसको नाज ।
(२९ सितम्बर, १९८० को रचित)