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सूरज चढ़ही छान्ही मा / विद्याभूषण मिश्र

आही किरन सकेले मोती, सुरूज़ चढ़ही छान्ही मा।
घाट-घठौधा लिखै प्रभाती, देखा फरियर पानी मा।
उषा सुंदरी हर अकास मा

कुहकू ला बगराये हे।
दुख के अंधियारी ला पी के
सुख-अंजोर ला पाये हे ।
का अंतर हातै चंदा मा, अउ बीही के चानी मा।
आही किरन सकेले मोती, सुरूज़ चढ़ही छान्ही मा।

हवा गंध के हर दुआर मा
जा अँचरा ला फइलाही ।
भिनसरहा के ओंठ म सूते
गीत जाग के लहराही ।
सब मुरझाये फूल टुटहीं, का हावै जिनगानी मा ।
आही किरन सकेले मोती, सूरूज़ चढ़ही छान्ही मा ।

आँखी के खुलही खोंधरा त
सपना फुर ले उड़ जाही
भरे जवानी हे रथिया के
पानी अइसन बह जाही ।
दिन भर के हे खेल देख ला, सुख-दुख भरे कहानी मा।
आही किरन सकेले मोती, सूरूज़ चढ़ही छान्ही मा ।

मिहनत के महिमा टेंडा हर
झूम झूम के दुहराही
नदिया ऊपर धरती मइया
सोनहा अँचरा फहराही ।

तिरिथ-बरत मा का हे भइया, सब कुछ हमर किसानी मा।
आही किरन सकेले मोती, सूरुज चढ़ही छान्ही मा।