सूरज बनजारा दे जाता है
प्रति प्रातः
यादों के छिलके।
दिन भर
ओसती,कूटती,पीसती।
हर साँझ
आँसुओं से गूँथती
और ! रात्रि के प्रथम प्रहर में
विरह की आँच पर
रोटी पकाती
भूखा मन बड़े चाव से
तोड्ता रहता छोटे-छोटे ग्रास
चबाते,चबाते पौन रात बीत जाती
छिलके-तो छिलके हैं
नीरस-बेस्वाद, अब न लूँगी
न ओसाऊँगी, न कूटूँग़ी न पकाऊँगी
सोच,सुस्तानी,अंतिम प्रहर में
दस्तक! ---कौन ?
सूरज बंजारा?
लो! छिलके
अनायास हाथ बढ़ जाते!
क्यों तो?