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सूर्यास्त / शमशेर बहादुर सिंह

मेरी अस्थियों के मौन में डूबा
     गुट्ठल जड़ें
प्रस्तरों के सघन पंजर में
             मुड़ गईं।

व्योम में फैले हुए महराब के विस्तार
स्तूप औ’ मीनार नभ को थामने के लिए
            उठते गए।
विकततम थे अति विकततम
विगत के सौपान पर्वतशृंग।

मेह्र
फेन- फूलों से गुथी सागर-लटों के बीचो-बीच
    थाह लेता
        विशद
         जल विशद।
              विशद।
अमित आकांक्षा उभार
    दाह का आलोक है केवल

धैर्य कितना धैर्य
  औ’ संतोष
कितना
आज के दिनमान की परछाइयों में
किरण का मासूम वैभव।
            किरण का मासूम वैभव
                 यह किधर झुकता है?