कबतक हम दीपक बालेंगे
हमको सूर्य उगाना होगा
बदल-बदल कर वैद्य थक गये
मिटी नहीं अपनी पीड़ाएँ
सहने की आदत ऐसी है
टूट गईं सारी सीमाएँ
पीड़ाओं में प्रतिरोधों का
स्नेहिल लेप लगाना होगा
किश्तों में बँट गई एकता
खुद का रस्ता रोक रहे हैं
बहकावे में आकर सच के
तन में खंजर घोंप रहे हैं
भेद-भाव को भूल हृदय का
मानव आज जगाना होगा
बातों से संतुष्ट हो रहे
लगता है अभिशापित जीवन
पल भर की झुंझलाहट को हम
मान रहे कबसे आंदोलन
मन की आँच रहे ना मन में
हमको तन सुलगाना होगा