आओ, बैठो,
मिलकर सुनें –
इस गगन झरती नीलिमा का
नील वर्णी राग।
वर्ण-छवि से टूटती
और बिखर अपने में सिमटती
रश्मि की शाश्वत् प्रभाती,
सान्ध्य-वर्णी राग।
पल्लवों का विलग हो
झरना, सहमना;
झरन के समवेत स्वर में
करुण-वैभव राग।
बीज अँकुर का उमगना
गगन लख,
फिर ललित कोमल गात
किसलय का कुतूहल;
कोंपल, किसलय की छवि से
पर्व-फल की परिणति तक
पथ-क्रमण की सतत गति
पद-चाप स्वर
झरता चिरन्तन
सृजन का आलाप
देवघर की दीप-लौ
देवछाया से लहरती,
आरती के थाल की
नैवेद्य चक्रित तान।