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सृष्टि का व्यापार / दिनेश कुमार शुक्ल

सृष्टि का व्यापार
विदेशी कम्पनी का कारिन्दा
जिस वक्त
अखबारी कारकुनों को
कंचे और मनके और
दीगर चुटुर-पुटुर चीजें
देकर फुसला रहा होता है
और
एक बेरोजगार बाप
नहर की पुलिया पर बैठ
ताकता रहता है
आती-जाती भीड़ को
और कभी-कभार बे-मतलब
फेंक देता है एक ढेला
लद्द से नहर के पेंदे में
ऐन उसी वक्त
जैव-मंडल के संज्ञान से परे
कुछ घटित होने लगता है
ब्रह्माण्ड में

अचानक निर्वात से झपटती
कुलाँचें भरती आती हैं ध्वनियाँ
और
चोंच मार-मार
लुहूलुहान कर जाती हैं
चट्टानों की प्रागैतिहासिक
चुप्पी को
क्षितिज की कन्दरा से
कूद पड़ते हैं
हजारों धूमकेतु
और पूँछ फटकारते
घायल ह्वेल मछलियों की तरह
मथने लगते हैं
अंतरिक्ष की चेतना को

अपने प्रदक्षिणा पथ पर
घूमता डगमगाता
पृथ्वी नामक खगोल पिण्ड
जीवन नामक प्रक्रिया के पाठ में लिखता है-
संघर्ष संघर्ष संघर्ष संघर्ष