सृष्टि जिसकी ज्योति-छाया,
क्यों कहूँ वह ब्रह्म-माया!
नींद की वह शान्ति मधुमय
प्राण की मधुधार कलकल,
हास की मधुरेख स्वर्णिम
आँसुओं की धार छलछल;
भाग्य भी, भवितव्य भी जो
भूत की संचालिका भी,
कर्म-कारण, क्रीत फल की
श्वेत-श्यामल तालिका भी;
वह प्रकट अपनी विभा से,
यह जगत उससे ही जाया।
मंत्रा का मन, तंत्रा साधे
शक्ति-बल भी, सारथी भी,
देवता की जो तपस्या
दीन मन की आरती भी;
वारि, वायु, अग्नि, भू पर
रूप का प्रतिबिम्ब जिसका,
व्योम जिसकी शयन-शय्या
मृत्यु-जीवन-योग उसका;
सत्, तमस, मन, बुद्धि वह है,
रूप, रस की गंध-काया ।