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सेतु / विजेन्द्र

कविता बने सेतु-समुद्रम‍
दूब को मिला सके वट-वृक्ष से
फलवान वृक्षों को आक से
धतूरे से, ढाक से, बबूल से
कच्ची हरी काई को सफ़ेद पर्वत शिखिरों से
ओह... कहाँ छोड़ूँ भावों के जलपाखियों को
मिलाए मेरे शब्द-चट्टानों को
फूटती नरम ललछौंही कोंपल से
मैं न भूलूँ कभी मूर्तिशिल्पी श्रमी को
बलवान भारतीय हलधर को
घसेरों, लकड़हारों को
ये सब मेरी जड़ों के नम मिट्टी सने
रेशे हैं, मेरी रगें हैं, आँखें हैं उत्सुक
हाथ...जो करना चाहते बिखरे मनकों को
एक सूत माला में, पहनाना चाहते मुकुट
लकड़हारे को
कौन देगा साथ मेरा... कहाँ हैं वे
जिन्होंने दिया भरोसा अंत तक साथ रहने का
कहाँ हैं वे शब्द, वे गान वे स्तोत्र
जो गाए गए मुट्ठी भर रजत मुद्राओं को
मुझे छोड़ कर बेहड़ में
पहुँचे राजपथ पर वे
फूल जब ब्नता जैविक अंग माला का
तभी बदलता नाम उसका
नया होता काम उसका
भिन्न होता धाम उसका
संशय खरौंचता अंदर-ही-अंदर
डर है मुझे
तुम्हें बुलाकर पास अपने
नहीं हो जाऊँ चुप अपरिचित
वे न भी आएँ पास
ख़ुद ही जाऊँगा पास उनके
कोई नहीं जा पाया पास जिनके
न हो जाए व्यर्थ पास उनको बुलाना
हों गहराइयाँ थाहने को
इरादे पक्के, नीवें ठोस हों
उनको बुलाने में हो अचूकपन, नेहपन, आत्मपन
खड़े हैं बुझे ज्योतिस्तम्भ आगे
काँपती हैं उनकी रिक्त छायाएँ
कौन है सूर्य-कण, चँद्र-बूँद, पलाश-रज
दिखाने को रास्ता आगे का
सुई को भी करनी पड़ेगी कद्र
धागे की, पाँचों उँगलियाँ ले सकें शक़्ल
बँधी मुट्ठी की
ओ कवि क्रांतदर्शी...बताओ मुझे
सोच का क्या रंग है, क्या सिलवट
क्या खुरदरापन, उँगलियों का लचीलापन
पत्थर का कड़ापन
खुला आकाश निरभ्र आगे तक बैंजनी
क्षितिज छूता है
ओह, इस गुलाबी महानगर में भी
तंग गलियों में मरहोरी किलकिलाती हैं
कहाँ लगन-लहरें, एकाग्रता के स्तम्भ
खूँटियाँ चित्त की, बंदिशें सपनों की
न हों उनकी कोशिशें नाकाम
खरपत रोकती है उगान गेहूँ का
सिरजूँगा तुम्हारे लिए नया पथ
रहूँगा जन के साथ
सीखूँगा उन्हीं से
श्रम से ही हरवार कल्पतरु जीवन का
लहलहाएगा, उसे सींचेंगे, रखाएँगे
बिना माँगे ही देगा वो
घनी छाया, थके-हारे को
खिले फूल गंध से बोझिल
पके फल सबको
फिर भी रहेगा नत फलों के भार से
क्यों न जुड़ पाऊँ उसकी गहरी जड़ों से
लिया है जितना सार
लौटाऊँगा उससे अधिक उसको
निचोद़्अकर छत्ता शहद का
रहना पाड़ेगा अटल बनके उन्हीं के बीच
जाना...फिर लौट आना
लिया उनसे जो लौटाना उन्हीं को
यही है ऋतु-चक्र जीवन का
लगे जीवन समृद्ध-तरोताज़ा, उत्फुल्ल...दमकता
दमकता लहकती दूब पर ओस-कण
कहाँ रुकती है
कब रुकी है धारा
बे-चैन जाने कितने
निकलने को बाहर
तोड़कर कारा ।