Last modified on 21 अगस्त 2020, at 22:56

सेवा से मेवा / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

निर्धन कमजोरों को रोटी,
रोज़ बांटते मियाँ शकील।

सुबह-सुबह से ख़ुद भिड़ जाते।
दो सौ रोटी रोज़ बनाते।
दो मटकों में बड़े जतन से,
सब्जी और दाल पकवाते।
अनुशासन की रेल दौड़ती,
होती इसमें कभी न ढील।

रोटी डिब्बे में रखवाते।
दाल बाल्टी में भरवाते।
सूखी सब्जी बड़ी लगन से,
एक टोकनी में बंधवाते।
चल देते हैं लिए सायकिल,
रोज़ चलें दस बारह मील।

लोगों को कुछ समझ न आता।
इन शकील को क्या हो जाता।
कठिन परिश्रम, धन बर्बादी,
इससे इनको क्या मिल पाता।
सेवा से मिलता है मेवा,
बस शकील की यही दलील।