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से तऽ गछू / मन्त्रेश्वर झा

बहुत लिखलहुँ मुदा से नहि लिखि
सकलहुँ जे लिखबाक छल
गओलहुँ बहुत गीत मुदा सभटा गीत
भऽ गेल सुरभिहीन छन्दहीन।
अहाँ तऽ बनौलहुँ अपने सन हे परमात्मा,
मुदा हम भेलहुँ ने अहाँसन
ने अपने सन
रोज देखैत रहलहुँ आइना
अपना के रहलहुँ सजबैत
कखनो अहाँसन सन, बनबाक ढोंग करैत
कखनो हुनका सन, कखनो ककरो सन
नाटक करैत
पसारैत रहलहुँ ज्ञानक घमंड
लोभक कर्मकाण्ड रचबैत
सांख्य योगक निष्काम भाव बनबैत
आचरण बदलैत रहलहुँ अपन,
आवरण बदलैत।
उनकर देह उघारैत, अपन झँपेत
होइत रहलहुँ सभ्य, सर्वत्र अपनाकेँ
एक्सेप्टेबुल बनबैत,
आ बदलैत रहलहुँ हमर रसायन आ भूगोल
अपने स्वत्व आ इतिहास सँ होइत
रहलहुँ फराक, अनजान
मनक एंटेना के करैत रहलहुँ
अहाँ सँ दूर,
छुटैत गेल अहाँक बारंबार संकेत
हे हमर परमात्मा
जरैत तऽ छी हमहूँ
मुदा बनैत केवल धूँआ,
चोन्हरा गेल अछि अपने आँखि,
तखन कोना केँ देखि सकत अहाँ के
हमर ई आँखि-असहाय
मुदा हे हमर परमपिता
अहाँ हमरा नजरि नहि आयब तऽ नहि आउ
अहाँ तँ छी अक्षर तेँ हमर अक्षर मे तऽ रहू
हमर शबद मे तऽ बसू-
कखनो हमर वाणी मे आयब से तऽ गछू।