दोष जताने से न प्यार का रंग छिपेगा,
सौ ढोंगों से भी न कभी वह ढंग से छिपेगा।
विजयी वल्लव लड़ा वन्य जीवों से जब जब –
सहमी सबसे अधिक अन्त तक तू ही तब तब।
फल देख युद्ध का अन्त में बची साँस-सी ले अहा !
तेरे मुख का वह भाव है मेरे मन में बस रहा।”
“कह तो लिख दूँ उसे अभी इस चित्र फलक पर !
बात नहीं जो मुकर सके तू किसी झलक पर।
कह तो आँखें लिखूँ नहीं जो यह सह सकती,
न तो देख सकती न बिना देखे रह सकती।
या लिखूँ कनौखी दृष्टि वह, विजयी वल्लव पर पड़ी ?
नीचे मुख की मुसकान में, मुग्ध हृदय की हड़बड़ी !
वल्लव फिर भी सूपकार, साधारण जन है, -
और उच्च पद-योग्य धन्य यह यौवन-धन है।”
कृष्णा बोली – “देवि, आप कुछ कहें भले ही,
मुझको संशय योग्य समझती रहें भले ही।
पर करती नहीं कदापि हूँ कोई अनुचित कर्म मैं,
दासी होकर भी आपकी, रखती हूँ निज धर्म मैं।
लड़ता है नर एक क्रूर पशुओं से डट कर,
कौतुक हम सब लोग देखते हैं हट-हट कर।
उस पर तदपि सहानुभूति भी उदित न हो क्या ?
और उसे फिर जयी देख मन मुदित न हो क्या ?
यदि इतने से ही मैं हुई, संशय योग्य कुघोष से,
तो क्षमा कीजिए आप भी – बचेंगी न इस दोष से।
पद से ही मैं किन्तु मानती नहीं महत्ता,
चाहे जितनी क्यों न रहे फिर उसमें सत्ता।
स्थिति से नहीं, महत्व गुणों से ही बढ़ता है,
यों मयूर से गीध अधिक ऊँचे चढ़ता है।
बल्लव सम वीर बलिष्ठ का, पक्षपात किसको न हो,
क्या प्रीति नाम में ही प्रकट काम वासना है अहो !”
रानी ने हँस कहा – “दोष क्या तेरा इसमें ?
रहती नहीं अपूर्व गुणों की श्रद्धा किसमें ?
स्वाभाविक है काम-वासना भी हम सबकी,
और नहीं सो सृष्टि नष्ट हो जाती कब की ?
मेरा आशय था बस यही – तू उस जन के योग्य है,
अच्छी से अच्छी वस्तु इस – भव की जिसको भोग्य है।
रहने दे इस समय किन्तु यह चर्चा, जा तू,
कीचक को यह चारु चित्र जाकर दे आ तू।
भाई के ही लिए इसे मैंने बनवाया,
वल्लव का यह युद्ध बहुत था उसको भाया।
मेरा भाई भी है बड़ा, वीर और विश्रुत बली,
ऐसे कामों में सदा, खिलती है उसकी कली।”
त्योरी तत्क्षण बदल गई कृष्णा की सहसा,
रानी का यह कथन हुआ उसको दुस्सह-सा।
पालक का जी पली सारिका यथा जला दे,
हाथ फेरते समय अचानक चोंच जला दे !
वह बोली – “क्या यह भूमिका, इसीलिए थी आपकी ?
यह बात ‘महत्पद’ के लिए है कितने परिताप की ?”
कहा सुदेष्णा ने कि – “अरे तू क्या कहती है ?
अपने को भी आप सदा भूली रहती है।
करती हूँ सम्मान सदा स्वजनी-सम तेरा,
तू उलटा अपमान आज करती है मेरा !
क्या मैंने आश्रय था दिया, इसीलिए तुझको, बता –
तू कौन और मैं कौन हूँ, इसका भी कुछ है पता ?”
रानी के आत्माभिमान ने धक्का खाया,
सैरन्ध्री को भी न कार्य्य अपना यह भाया।
“क्षमा कीजिए देवि, आप महिषी मैं दासी,
कीचक के प्रति न था हृदय मेरा विश्वासी।
इसलिए न आपे में रही, सुनकर उसकी बात मैं,
सहती हूँ लज्जा-युक्त हा ! उसके वचनाघात मैं।
होकर उच्च पदस्थ नीच-पथ-गामी है वह,
पाप-दृष्टि से मुझे देखता, -कामी है वह।
नर होकर भी हाय ! सताता है नारी को,
अनाचार क्या कभी है उचित बलधारी को ?
यों तो पशु महिष वराह भी रखते साहस सत्व हैं,
होते परन्तु कुछ और ही, मनुष्यत्व के तत्व हैं।
मुझे न उसके पास भेजिए, यही विनय है,
क्योंकि धर्म्म के लिए वहाँ जाने में भय है।
रखिए अबला रत्न, आप अबला की लज्जा,
सुन मेरा अभियोग कीजिए शासन-सज्जा।
हा ! मुझे प्रलोभन ही नहीं, कीचक ने भय भी दिया,
मर्यादा तोड़ी धर्म की, और असंयम भी किया।”
रानी कहने लगी – “शान्त हो, सुन सैरन्ध्री,
अपनी धुन में भूल न जा, कुछ गुन सैरन्ध्री !
भाई पर तो दोष लगाती है तू ऐसे,
पर मेरा आदेश भंग करती है कैसे ?
क्या जाने से ही तू वहाँ फिर आने पाती नहीं ?
होती हैं बातें प्रेम की, सफल भला बल से कहीं !
तू जिसकी यों बार बार कर रही बुराई,
भूल न जा, वह शक्ति-शील है मेरा भाई !
करता है वह प्यार तुझे तो यह तो तेरा –
गौरव ही है, यही अटल निश्चय है मेरा।
तू है ऐसी गुण शालिनी, जो देखे मोहे वही,
फिर इसमें उसका दोष क्या, चिन्तनीय है बस यही।
तू सनाथिनी हो कि न हो उस नर पुंगव से,
उदासीन ही रहे क्यों न वैभव से, भव से।
पर तू चाहे लाख गालियाँ दीजो मुझको,
मैं भाभी ही कहा करूँगी अब से तुझको !
जा, दे आ अब यह चित्र तू जाकर अपनी चाल से।”
हो गई मूढ़-सी द्रौपदी, इस विचित्र वाग्जाल से।
बोली फिर – “आदेश आपका शिरोधार्य है,
होने को अनिवार्य किन्तु कुछ अशुभ कार्य है !
पापी जन का पाप उसी का भक्षक होगा।,
मेरा तो ध्रुव-धर्म सहायक रक्षक होगा ।”
चलते चलते उसने कहा, नभ की ओर निहार के –
“द्रष्टा हो दिनकर देव तुम, मेरे शुद्धाचार के।”
ठोका उसने मध्य मार्ग में आकर माथा –
“रानी करने चली आज है मुझे सनाथा !
विश्वनाथ हैं तो अनाथ हम किसको मानें ?
मैं अनाथ हूँ या सनाथ, कोई क्या जानें ?
मुझको सनाथ करके स्वयं, पाँच वार संसार में,
हे विधे, बहाता है बता, अब तू क्यों मँझधार में ?
हठ कर मेरी ननद चाहती है वह होना,
आवे इस पर हँसी मुझे या आवे रोना ?
पहले मेरी ननद दुःशाला ही तो हो ले ?
बन जाते हैं कुटिल वचन भी कैसे भोले !
मैं कौन और वह कौन है, मैं यह भी हूँ जानती।”
कर आप अधर दंशन चली कृष्णा भौंहे तानती।
“आ, विपत्ति, आ, तुझे नहीं डरती हूँ अब मैं,
देखूँ बढ़कर आप कि क्या करती हूँ अब मैं।
भय क्या है, भगवान भाव ही में है मेरा,
निश्चय, निश्चय जिये हृदय, दृढ़ निश्चय तेरा।
मैं अबला हूँ तो क्या हुआ ? अबलों का बल राम है,
कर्मानुसार भी अन्त में शुभ सबका परिणाम है।”
सैरन्ध्री को देख सहज अपने घर आया,
कीचक ने आकाश-शशी भू पर-सा पाया।
स्वागत कर वह उसे बिठाने लगा प्रणय से,
किन्तु खड़ी ही रही काँप कर कृष्णा भय से।
चुपचाप चित्र देकर उसे ज्यों ही वह चलने लगी,
त्यों ही कीचक की कामना उसको यों छलने लगी –