हर सांझ, तेरे रूख का क्षण भर अवलोकन
क्यों मुझेको प्रतिक्षण उद्वेलित कर जाता है
वह क्या अदृश्य है जो, शून्य में संधि बन
मेरा अंतर तुझसे यूं जोडे रखता है।
क्या मिल जाता है, उस क्षण भर में ही मुझको
एक भाव गूंजता अंतर में, हर क्षण हर पल
पर व्यक्त उसे शब्दों में कैसे कर दूं मैं
हो कैसे अभिव्यक्त, जो है अब तक गोपन।
इन्हीं रहस्यों में उलझाता हुआ मैं खुद
को, कहीं बहुत कुछ सुलझाता जाता हूं।
मेरा जो भी छूट वहां उस क्षण जाता है
उसे बचाना नहीं रहा अब मेरे वश में।
उस खोने में भी, बहुत कुछ पा जाता हूं
पा-पाकर हरदम पाना कुछ रह जाता है।
1988