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सोचता जब तक / प्रताप नारायण सिंह

सोचता जब तक,
सिहारूँ नेह-जल अंतह-कलश में
           मेघ मुझको छल चुके थे

उल्लसित प्रस्तावना देखी, मधुर विस्तार देखा
अंततः निर्वात से भी रिक्त उपसंहार देखा

सोचता जब तक
उतारूँ प्रणय-गाथा पुस्तिका पर
               पृष्ठ सारे गल चुके थे

गूँथ कर हिय-मृत्तिका को भावना-जल से, गढ़ा था
रंग उस पर इन्द्रधनु जैसा समर्पण का चढ़ा था

सोचता जब तक
निहारूँ प्रीति की प्रतिमूर्ति कोमल
             देव द्युति के ढल चुके थे

स्वर लहरियाँ धड़कनों की उर-सदन में गूँजती थीं
कोयलें उल्लास की आठों प्रहर ही कूजती थीं

सोचता जब तक
सँवारुँ रूप अपने गीत का मैं
        बोल सारे जल चुके थे