Last modified on 16 जनवरी 2011, at 14:31

सोचना और होना / नीलेश रघुवंशी

बनाना चाहती थी घर पहाड़ों के ऊपर
डर गई लेकिन जंगली जानवरों और हवाओं से...
बहुत प्यार है पानी से सोचा क्यों न घर बनाऊ~म समुद्र तट पर
लेकिन डर गई तूफ़ान और लहरों से...
फिर सोचा कहीं एकांत में शहर के कोलाहल से दूर
लेकिन बिछड़ने से पहले दोस्तों की याद ने ऐसा करने से रोका
फिर जाने कैसे बिना कोई ना नुकुर किए बन गया घर
सोचती हूँ अब खिड़की से झाँकते
संसार को त्यागने से अच्छा है माया-मोह त्यागकर संसार में रहना
मेरी इस बात पर हँसता है बाज़ार ख़ूब
खिड़की भी तो है उसी के भीतर
हवाओं से डरी जानवरों से डरी तूफ़ान और लहरों से भी डरी
जिससे डरना चाहिए था उसी की गोद में जाकर गिरी...

मई 2006, भोपाल