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सोचा हुआ कहाँ / प्रमोद तिवारी

तेज धूप में
बादल लाऊं
बादल लाने
पर्वत जाऊं
पर्वत की चोटी से
उड़कर
घर-घर
नेह नीर बरसाऊं
सोचा तो यह था
मैंने पर
सोचा हुआ
कहां होता है

दीवारों पर टंगा कलंडर
करता रहता है फर-फर-फर
मैं भी उसकी तरह
हर पहर
काबिज रहूं
समय की गति पर
सोचा तो यह था
मैंने पर
सोचा हुआ
कहां होता है