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सोचो एक दिन / हरे प्रकाश उपाध्याय

सोचो ऐक दिन
भाइयों , उस आकाश के बारे में सोचो
जो तुम्हारे ऊपर टिका हुआ है
इस धरती के बारे में सोचो
जो तुम्हारे पाँवों तले थर-थर काँप रही है
भाइयों , इस हवा के बारे में सोचो
जो तुम्हारे घूँघट खोल रही है
कुछ ऐसे सोचो
कुछ वैसे सोचो

माथा दुखने के दिन हैं ये
अपना माथा ठोको भाइयों
बाज़ार में तुम क्या बेचोगे
क्या खरीदोगे
कौन से रास्ते तय करोगे सोचो
सोचने का यही सही समय है
सफ़र बाज़ार का तय करने से पहले सोचो
सोचो इस दुनिया में कितने अरण्य है
 कितने रंग है
और कितना पानी है इस दुनिया में

अगर सोचने के लिये तुम्हारे पास समय नहीं हो
तो इतना ही सोचो
 कि क्या यह सोचना जरूरी नहीं कि
तुम्हारी जेभ कितनी लम्बी हो सकती है
तुम्हारे बगल में लेटी हुयी औरत
कब तक और कितना
क्या-क्या बेच सकती है
मँा का दूध कितने रूपये किलो बिकना चाहिये भाइयो
भाइयों चलते चलते सोचो कि
 दुनिया की रफ्तार और धरती के कम्पन्न में कैसा रिश्ता है

हर मिनट आखिर अधिकतम कितने हादसे हो सकते है
गर्भवती स्त्री बलात्कार के कितने सीन झेल सकती है
भाइयों अपने अरण्य से बाहर निकलकर
सोचो एक दिन सब लोग
धरती ने शुरू कर दी दुकानदारी तो क्या होगा?

सेचो दुनिया क अरबपतियों
धरती के सूख रहे पेड़ों के बारे में सोचो
हवा का रूख बदलने पर सोचो
ग़ायब हो रहे पक्षियों के बारे में सोचो

चींटियों तुम हाथियों के बारे में सोचो।
यह हाथियों के मदान्ध होने का दौर है।