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सोच रहा हूँ / मृत्युंजय

सोच रहा हूँ
नीले धौले फूल खिले हैं
बहुत दिनों के बाद आज मन हल्का सा है, बाल खुले हैं,
पाल खुले हैं इन्तज़ार में खड़ी नाव के, समझो तो कितने
ही रस्ते बुला रहे हैं, हल्की गुनगुन धूप, लड़कियाँ खेल रही हैं
शीत रुई सी उनकी नाकों को सहलाती भुने हुए आलू की ख़ुशबू
ताज़ा गुड़ की गमक गाँव के सिर बैठी है, चमक रहीं बैलों की सींघें
काठचिरैया बुला रही है, हरे-हरे गेहूँ के दानों दूध पड़ गया
मगन भैंस सिर झुका नाद में खोज रही कुछ, छटक-मटक करता है पड़रू

सोच रहा हूँ भली-भली बातें दिमाग़ में आती जाएँ
थोड़ा सा ही सही भेद जलकुम्भी पानी दिख तो जाए
छिप जाए वह गू जो पानी के ऊपर ही तैर रहा है
पर ऐसा होगा कैसे यह सोच रहा हूँ

खुले बाल जो धूल सने हैं, मन हल्का है आँख फेरकर
वही नाव जो बीच थपेड़ों फेंक दी गई
पाँवों के छालों के नीचे रस्तों पर काँटे बिखरे हैं
हल्की गुनगुन धूप कड़ी हो अभी नोंच लेगी शीतलता
घर जाएँगी चूल्हे चौके यही लड़कियाँ शीत खरोंचेगी नाकों को
भुने हुए आलू ही होंगे भोजन पूरा
ताज़ा गुड़ को टका मोल भी नहीं ख़रीदेगा कोई भी
सींघें चमकाते पशुओं को भूसा चोकर-खरी मिलेगा नहीं
काठचिरैया की बोली यों ज़हर लगेगी, हरे-हरे गेहूँ पाले में झुरा जाएँगे, जल जाएँगे
मगन भैंस के हौदे में पानी ही पानी, दूध नहीं पाने से पड़रू छटक-मटक कर रह जाएगा

सोच रहा हूँ कवि हूँ तो दुनिया से ही ले लूँ छुटकारा
सोच रहा हूँ कवि हूँ तो इस दुनिया से क्या ही छुटकारा
सोच रहा हूँ कवि हूँ तो इस दुनिया में ही है छुटकारा