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सोच रहे नाज़ुक मृगछौने / कुमार रवींद्र

ऊँचे गुंबज-मीनारें हैं
               सूरज बौने
 
सडकों पर लंबे जुलूस हैं
धूम-पटाखे
घर में तुलसीचौरे सूने
खाली ताख़े
 
अँधियारे में डूबे हैं
            दीवार-बिछौने
 
महलों में दिन-रात
रोशनी के फव्वारे
फुटपाथों पर बिकी धूप
गिन रही सितारे
 
किस राधा की माँग भरें
            हों किसके गौने
 
फैल रहे शहरों के
बढ़ते हुए तकाज़े
जंगल होते रहे धुआँ
खिड़की-दरवाज़े
 
कहाँ छिपें - यह सोच रहे
              नाज़ुक मृगछौने
 
नज़र लगी है
झाड़-फूँक के रोज़ तमाशे
अँधे-बहरे बजा रहे
मेले में ताशे
 
नए समय के नए-नए
                ताबीज़-दिठौने