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सोज़े-ए-निहाँ / कैफ़ी आज़मी

इक यही सोज़े-ए-निहाँ कुल मेरा सरमाया है
दोस्तो, मैं किसे यह सोज़-ए-निहाँ नज़्र करूँ?
कोई क़ातिल सरे-मक़्तल नज़र आता ही नहीं
किस को दिल नज़्र करूँ और किसे जाँ नज़्र करूँ
तुम भी महबूब मेरे, तुम भी हो दिलदार मेरे
आशना मुझसे मगर तुम भी नहीं, तुम भी नहीं
खत्म है तुम पे मसीहानफ़सी, चारागरी
महरमे-दर्दे-जिगर, तुम भी नहीं, तुम भी नहीं
अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं
दस्तो-बाज़ू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिनसे हर दौर में चमकी है तुम्हारी दहलीज़
आज सज्दे वही आवारा हुए जाते हैं
दूर मंज़िल थी, मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी
ले के फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझको
एक ज़ख़्म ऐसा ना खाया कि बहार आ जाती
दार तक ले के गया शौक़े-शहादत मुझको
राह में टूट गये पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं
एक के बाद ख़ुदा एक चला आता था
कह दिया अक़्ल ने तंग आके ख़ुदा कोई नहीं