डुबकती, उचकती, बलखाती
लहरों से होड़ ले अठखेलियाँ करती थी सोनमछरी
चरवाहे का मन भी उमगता-बहता जाता धारे के सँग दूर तक
सुहाती थी आँख-मिचौली
बाँसुरी की स्वर-लहरी
लहरों की तान
सुरीला सँगम ।
नदी का किनारा
जँगल की ज़मीन
रोमाँच से भर जाते दोनो ।
किसे अन्देशा था झँझावात का
रँग-बिरँगे धागों से बुना जाल
सुनहरे दाने आकर्षण और ठगौरी ।
नदी का किनारा
चरवाहा और बाँसुरी
दूर तक पसरा सन्नाटा ।
अब नहीं दीखती सोनमछरी
डूबती, उतराती
खो गई जाने कहाँ
किस गहराई और खोह में सदा के लिए ।