सोनहंसी हंसते हैं लोग
हंस-हंस कर डसते हैं लोग ।
रस की धारा झरती है
विष पिए हुए अधरों से,
बिंध जाती भोली आँखें
विषकन्या-सी नज़रों से ।
नागफनी को बाहों में
हंस-हंस कर कसते हैं लोग ।
जलते जंगल जैसे देश
और क़त्लगाह से नगर,
पाग़लख़ानों-सी बस्ती
चीरफाड़घर जैसे घर ।
अपने ही बुने जाल में
हंस-हंस कर फँसते हैं लोग ।
चुन दिए गए हैं जो लोग
नगरों की दीवारों में,
खोज रहे हैं अपने को
वे ताज़ा अख़बारों में ।
भूतों के इन महलों में
हंस-हंस कर बसते हैं लोग ।
भाग रहे हैं पानी की ओर
आगजनी में जलते से,
रौंद रहे हैं अपनों को
सोए-सोए चलते से ।
भीड़ों के इस दलदल में
हंस-हंस कर धँसते हैं लोग ।
वे, हम, तुम और ये सभी
लगते कितने प्यारे लोग,
पर कितने तीखे नाख़ून
रखते हैं ये सारे लोग ।
अपनी ख़ूनी दाढ़ों में
हंस-हंस कर ग्रसते हैं लोग ।