भारत की मिट्टी में
सोने का कण है
इस कान्तिमयी रज से
कौन अभ्रिप्रेरित नहीं है
कौन बैठा है
आंखे मूंद
अहा स्वर्णिम आभा में
बैठा हूं मैं
मेरी आत्मा को
जागृत करने वाली
तुम वंदनीया हो
मेरे जन्म जन्मातर के
पापों को नष्ट करने वाली
तुम प्रसादमयी हो
तुम्हारे प्रभाव से
अज्ञानता फूहड़ता लुप्त हो जाती है
तुम्हारे ज्ञानमयी संस्कारमयी पुञ से
अन्तस् की कालिख
सुनहले रूप को प्राप्त कर
समस्त ग्रन्थियों को
खोलने मेें समर्थ होती है
हे अमृतमयी
तुम ऋषियों की वाणी हो
तपस्वियों की तपस्या का
फल हो
तुझ में कितने ही महापुरूष
बालक बन खेले है
कितनों को संवारा है तुमने
हे कल्याणी
तुम मोक्षदायिनी हो
अहा, इस धरती में
रत्नों के तन्तु हैं
अये पुण्यमयी माँ
मैं मिटना चाहता हूं तुझमें
खिलना चाहता हूं
अरू रोना बिलखाना भी चाहता हूं
तेरे आंचल में
जिसे खुला रखना सदैव
मेरे लिए।