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सोने के पहाड़ / उद्भ्रान्त

डूब गए
कुहरे में
फिर वे
सोने के पहाड़

जो पहाड़
उजलापन
बाँट रहे थे
बरसों से
अचरज है
दीख नहीं रहे मुझे
कल-परसों से
थे जहाँ पहाड़
वहाँ जल है
धुंध है
धुँआ है
बादल है

डूब गए
पानी में
जादू-टोने के पहाड़

जो परबत
डूब गए
उन्हें
डूब मत जाने दो
हे नाविक !
मुझको
फिर से
कविता निर्माणों की
गाने दो
यह कविता
बहुत नई होगी
हर्षित होगा
मन का जोगी

निर्मित होंगे
मन के
सरगम होने के पहाड़

लो देखो
उभर रहे
कोहरे से
फिर वे
सोने के पहाड़

--’समकालीन भारतीय़ साहित्य’ (नई दिल्ली), मई-जून, 1996